ऐसा क्या है कि पूरब के लिए धरती मां होती है, लेकिन पश्चिम के लिए सिर्फ संपत्ति? यह पुस्तक पूंजीवाद के उस मिथक को चुनौती देती है जिसे आधुनिक दुनिया 'प्रगति' और 'स्वतंत्रता' का स्वाभाविक परिणाम मानकर चलती है. लेखक दिखाते हैं कि पूंजीवाद न तो कोई प्राकृतिक व्यवस्था था और न ही मानव स्वतंत्रता का अनिवार्य विस्तार. बल्कि यह हिंसा, विजय, दासता और संसाधनों की लूट से निर्मित एक परियोजना थी, जिसकी शुरुआत 15वीं सदी के Papal Bulls से हुई और जिसे 'White Man’s Burden' जैसे नैतिक आवरणों में छिपाकर पूरी दुनिया में फैलाया गया. यह पुस्तक उस इतिहास को उजागर करती है जिस पर आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं की नींव रखी गई. इसके विपरीत, लेखक एक वैकल्पिक सभ्यतागत दृष्टि प्रस्तुत करते हैं. सनातन धर्म, अद्वैत दर्शन और भारत की स्वदेशी ज्ञान-परंपराओं में निहित वह विश्वदृष्टि, जो एकत्व, स्वायत्तता और प्रकृति के साथ सामंजस्य पर आधारित है.
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